मूवी रिव्यू: जय गंगाजल

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रेटिंग: ढाई स्टार

‘जय गंगाजल’ को आप प्रियंका चोपड़ा की फिल्म समझ कर देखने जाएंगे. इसलिए ये बताना ज़रूरी है कि फिल्म में सबसे अहम किरदार प्रियंका चोपड़ा का नहीं बल्कि निर्देशक प्रकाश झा का है जिन्होंने बतौर एक्टर ख़ुद को इस फिल्म में लॉन्च किया है. ‘जय गंगाजल’ की मूल कहानी उनकी 2003 की कामयाब फिल्म गंगाजल से ही मिलती जुलती है. भागलपुर ब्लाइंडिंग्स (आंखफोड़ कांड) से प्रेरित ‘गंगाजल’ में पुलिसवाले अपराधियों की आंख में तेज़ाब डालकर क़ानून हाथ में लेते हैं तो ‘जय गंगाजल’ में अपराधियों को फांसी पर लटकाने की घटनाएं हैं. इन सब के बीच पुलिस के सामने आने वाली परेशानियां, क़र्ज़ में डूबे किसानों की ख़ुदकुशी और इनपर होती राजनीति का ताना-बाना है. मगर ये सबकुछ आप पहले कई बार देख चुके हैं.

यहां एक काल्पनिक शहर लखीसराय के बांकेपुर क़स्बे में एमएलए बबलू पांडे (मानव कौल) का राज है. शहर में एक पावर प्लांट के लिए ज़मीन चाहिए और बबलू का भाई डब्लू पांडे (निनाद कामत) ग़रीब किसानों की ज़मीन ज़बर्दस्ती हथियाने की कोशिश में लगा है. इन भ्रष्ट कारानामों में दोनों का साथ देता है डीसीपी भोलानाथ सिंह (प्रकाश झा). भोलानाथ सिंह नौकरी तो पुलिस की करता है लेकिन हुक्म मानता है एमएलए बबलू का.


इन हालात में आईपीएस अफसर आभा माथुर (प्रियंका चोपड़ा) को ज़िले की नई एसपी बनाकर भेजा जाता है. आभा ग़ैरक़ानूनी काम पर लगाम लगाने की कोशिश करती है तो पहला टकराव होता है अपने ही डिपार्टमेंट के डीएसपी भोलानाथ सिंह से. लेकिन फिर घटनाएं घटती है और बबलू पांडे का आतंक बढ़ता ही जाता है. आख़िरकार आभा माथुर भोलानाथ सिंह की आंखें खोलती है और वो बदल जाता है.



कहानी सुनकर शायद आपको लगे कि ये फिल्म इस बारे में है कि कैसे आईपीएस अफ़सर आभा माथुर इस शहर से आतंक का सफ़ाया करती है. लेकिन ऐसा नहीं है. पौने तीन घंटे लंबी इस फिल्म का केंद्र भोलानाथ सिंह (प्रकाश झा) का किरदार है. सबसे ज़्यादा स्क्रीन टाइम प्रकाश झा के हिस्से आया है और सबसे मज़बूत सीन भी. फिल्म में प्रियंका समेत सारे किरदार किसी ना किसी तरह उन्हीं के किरदार के इर्द-गिर्द घूमते नज़र आते हैं और प्रकाश झा एक मंझे हुए अभिनेता की तरह अपना रोल निभा गए हैं. प्रियंका या मानव कौल के सामने एक एक्टर के तौर पर वो कहीं कमज़ोर नहीं पड़े हैं. लेकिन परेशानी ये है कि ना को किसी सीन में और ना ही स्क्रिप्ट में कुछ नयापन दिखाई देता है. ख़ुद प्रकाश झा की फिल्मों में ही आप ऐसी कहानियां, ऐसे शहर, ऐसे पुलिसवाले, ऐसे विलेन पहले कई बार देख चुके हैं.
प्रियंका चोपड़ा ने अपने किरदार को बहुत ईमानदारी से निभाया है लेकिन इस रोल में वो मिसफ़िट लगती हैं. साथ ही जैसे मज़बूत सीन गंगाजल में अजय देवगन के किरदार को मिले थे वैसे प्रियंका को नहीं मिले. खलनायक के रूप में मानव कौल का किरदार में हालांकि कमज़ोर लिखा गया है लेकिन उन्होंने बहुत अच्छा अभिनय किया है.


1985 में प्रकाश झा ने दमदार फिल्म दामुल के ज़रिए निर्दशन में क़दम रखा था. उस फिल्म में मज़दूरों की व्यथा और उनके शोषण की दर्शाया गया था. यही भाव प्रकाश झा के सिनेमा में लगातार नज़र आता रहा मगर अब गंभीरता की जगह मसाले ने ले ली है. कहने को तो ‘जय गंगाजल’ में भी किसानों की ख़ुदकुशी, नेताओं-उद्योपतियों की सांठ-गांठ और पुलिस के राजनीतिकरण जैसे बड़े मुद्दों की बात है. बीच में भाषण देने के लिए एक्टिविस्ट (राहुल भट्ट) भी हैं. मगर घटनाएं बेहद घिसीपिटी लगती हैं. एक सीन देखकर आपको अगले सीन का अंदाज़ा होने लगता है.
‘जय गंगाजल’ 80 के दशक की डायलॉगबाज़ी वाली एक्शन फिल्म से ज़्यादा कुछ नहीं बन पाती.

इसे देखना चाहते हैं तो सिर्फ अभिनेता प्रकाश झा के लिए देखिए.

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Unknown

Some say he’s half man half fish, others say he’s more of a seventy/thirty split. Either way he’s a fishy bastard.

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